बिटियाक स्नेह (कथा) - घनश्याम झा

सुगना फटल -पुरान वस्त्र पहिरने,धुल सँ लतपथ शरीर मे रोडक किनार  रात्रिक आठ बजे बैसल छल , भुख सँ छडपटा रहल छल , माथा सँ पसीना टप टप चुबैत छेलैय । घुमैत घुमैत ओकरा चक्कर आइब गेल रहैय ,माथ पर हाथ दय सोचैय लागल जे आइयो भुखले रऽह पडत ।

सामने ड्योही जाका भुकभुक इजोत नजैर पडलैय , सोचलक चलि क देखियै कोनो भोज भातक इंतजाम छय कि ?  दुरैह सँ देखलक लोक सभ ठार भ क  हाथ मे थारी ल क खा रहल अछि । सोचलक हमहु जाईत छी किछु मांगि आबि आ अपन छुद्धा के शांत क लिऽ । आगु बढल पता चललैय इन्जीनियर  महेश बाबुक बेटी पिंकी केर आठम जन्म दिवस छीयैन । सैंकडो गाडिक धरिया धसान अछि । सऽब अपन अपन काज मे मस्त अछि । कियौ उपहार भेंट कऽ रहल छथि त कियौ भोजन क रहल छथि , किछु गोटे नृत्य  करऽ मे व्यस्त  छथि । आगु बढल सबसँ नजैर चोरबैत थारिक समीप पहुंचल ,  एतबा मे महेश बाबुक नजैर ओकरा पर पडल , जोर सँ बजला रे अनुराग देखहि त के आबि गेलउ । वैइला ऐकरा ,  जकरा मऽन होईत छव आइब जाइत छौव ।गेटक चौकिदारक नजैर अहि पर नञ छौव कि । सुगना डर सँ कपैइत तिरपालक ओहार भऽ गेल ।अनुराग के भेलनि जे ओ चलि गेल ,  ओ इम्हर ओम्हर देखि नृत्य  मे मस्त भऽ गेलथि ।

किछु कालक बाद सुगना फेर हिम्मत  कैयलक ।आगु बढितैय महेश बाबु जे एकटा साहेब के विदा कऽ रहल छला हुनकर नजैर फेर सँ सुगना पर पडलैन । तामस सँ लहलहाईत महेश बाबु ओकल गट्टा पकरि,  घिसियाबऽ लगला ,  सुगना कनैत कंपैत बाजल "मालिक छोइर दिऽय भुख लागल अछि थोडबे दऽ दिऽय , हम जतैक खायब ओहि सँ बेसि तऽ आहाँ फेंक देबैय ।"  महेश बाबु गरजैत बजला " हम कतबौ फेंक देबैय तकर हिसाब तु के रखनाहर छै रे बेहुदा ,  कतौ पैर उठा कऽ चलि आबैत छै ,  धर्मशाला  छैयैय कि ? " सुगना के बाहर निकालैइत ,  चौकीदार  चे फटकारैत फेर सँ मेहमानवाजी  मे जुटि गैलैथि ।

पिंकी एकटा थारी मे व्यंजन  लैइत छलि , "अंकल और थोडा देना" भेन्डर सँ मुस्कुराइत पिंकी  कहलक । सऽब सामाग्री  लऽ कऽ पिंकी  ओहि गेट सँ बाहर निकलल जाहि पर चौकिदार नञ छल । शायद सुगना आ महेश बाबुक सऽब क्रियाकलाप  पर पिंकी केर नजैर छलैय । पिंकी देखलक जे सुगना एकटा पाथर पर पेट पकरि कानि रहल अछि ।नोर सँ ओकर मैल वस्त्र  बोदैइर भऽ गेल छल ।

पिंकी केर ह्रदय  कांपि उठल ,  पिंकी ओकर नोर पोछैइत भोजनक थारी बढबैत ,  मुस्कुराइत भोजनक लेल आग्रह  केलक ,। सुगना अहि स्नेह  के देखि कँ अश्रुधारा  बहबऽ लागल ,  ओकरा सत्तर  सालक उम्र मे पहिलबेर सच्ची मानवताक साक्षत् दर्शन भेल ।

दु चारि कौड खेलाक बाद सुगना के हिचकी  आईब गेलैय ,पिंकी  झट जल लाबैइ  लेल पाछु घुमल कि दृश्य  देखि क चौंकि गेल ,  डर सँ ओकर देह पानि पानि भऽ गेलैय । महेश बाबु पाछु मे ठारह भेल आंखि लाल पियर कयनै छला । 

मुदा इ कि ?  अचानक  महेश बाबुक आंखि सँ बऽह लागल ,  पानिक बोतल सुगना दिस बढबैत पिंकी सँ लिपटि कानऽ लगला । हुनक घमंड  चुर-चुर भऽ गेल छल । पिंकी हुनकर नोर पोछैत बाजल ।

"बाबुजी सभके भोजन करबैय सँ बेसि जरूरी अछि जे भुखल छथि तिनका भोजन कराबि "

 महेश बाबु बिना किछु बजनै सर नीचा कऽ हामी भरला आ पिंकी के गला सँ लगबैत सुगना सँ माफी मांगैत चलि देला ।

__घनश्याम झा (दरभंगा 

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