धीरेन्द्र-मनुक्ख आ मशीनी आदमी

तोरा संग हँसैत छी
तोरा संग बजैत छी
खा’ लै’ छी तोरा संग--दू खिल्ली पान!
तेजी सँ चलै छी,
जोरसँ बजै छी,
रहैत अछि ठोर पर हरदम मुस्कान!
बूझि लैह से तों, हल्लुक छी तूर जकाँ?
सहि लेब अवज्ञा फेकल नूर जकाँ?
बदलि गेल रंजक होएत ने अवधान?
मुदा गुप्प से नहि छै मित्रा!
हँसी देखलह अछि, हँसीक त’रक नोर नहि।
चंचलता देखलह अछि, अन्तरमे पालित होड़ नहि।
मुस्कीक बिहाड़ि तों देखलह अछि कहाँ!!
इच्छा छल बाँटि दी अप्पन मुस्की,
नोर आ बिहाड़िकें घोंटि पीबि जाइ।
डुबा दी व्यष्टिक चिन्ता समष्टिक समुद्रमे!
मोन नहि छल जे समुद्रक पानि नोनगर होइछ
पियास ओ मिझाओत नहि।
तें कहलिअह ई सभ!
मुदा नमस्कार बन्धु!
देखि लैह कृत्रिमताक उच्च-पहाड़,
अर्चना करए लागह गम्भीरता बूझि तों।
(बिना बुझने बिहाड़िक पूर्वक शान्ति,
बिना बुझने मित्राताक पण्डुकीक हत्या।)
किन्तु गप्प एतबे जे मनुक्ख मरि गेल,
ई जकरा देखैत छह--ओ थिक मशीनी आदमी।

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