गोविन्द झा - युग-पुरुष


कत’ उघने जाइ छह हे युग-पुरुष ई
पर्वताकृति माथ?
अरे कोन पदार्थसँ छहु गर्भिणी ई मगज-पेटी?
बहै छहु अविराम एहिमे पर्मिं काष्ठक ह’र
तीक्ष्ण बुद्धिक फार, ज्ञानेन्द्रियक बसहा
विकट नियमक रासि
अकट तर्कक नाथ।
एहि सभकें गर्भमे कएने जरायु समान
पर्वताकृति माथ
कत’ उघने जाइ छह हे युग-पुरुष तों?
जा रहल छह आइ जोतै लेल नबका चास
दूर, अतिशय दूर?
जोति चुकलह घ’र लगक चैमास?
जोति चुकलह बाध-बोनक चास?
जोति चुकलह चीन ओ जापान?
रूस, अमेरिका, अरब, ईरान?
खूब तेज हँकै छह तों अपन मगजक ह’र।
बाह रे हरबाह!
जाह, जत्ते दूर जेबह, जाह।
शिवास्ते पन्थाह!
कते उपजौलह एखन धरि?
कए अरब टन? कए खरब टन?
ताहिसँ की भेलह नहि सन्तोष जे तों
आइ जोतए जा रहल छह दूर, अतिशय दूर
बढ़ि गेलहु अछि गृð दृष्टिक भूर
घ’रे बैसल देखि लै छह लाख योजन दूर।

दूर लटकल जे गगनमे चान
आइ हस्तामलकवत् से भ’ रहल छहु भान
देखि रहलह अछि जोत’ तों लहलहाइत चास
जा रहलह अछि ओतहि तों, अरे लोभक दास।
ल’ अपन ई पर् िंकाष्ठक ह’र!
वाह रे हरबाह
जाह, जत्ते दूर जएबह, जाह।
शिवास्ते पन्थाह।

अपन माथक भारसँ अपनहि पिचाइत
रेलवेक कुली जकाँ बेजान दौड़ल जा रहल
हे पर्वताकृति माथ
सर्षपाकृति माथ केर सम्वाद किछु सुनि लएह
गर्वसँ क’ उच्च मस्तक ताल-वक्ष-समान
जा रहलह अछि गगनसँ आइ आनए चान
हाल की धरतीक छै; नहि ताहि दिस छहु ध्यान
लगौने छह मात्रा ऊपर टकटकी बड़ जोर
कहि देतहु मुँहफट कोनो मैथिल अकास-काँकोड़
भेल नहि अछि आइयो धरतीक पीड़ा शान्त
होअह जँ, विश्वास नहि तँ चलह हमरा संग
भ’ जेतहु ‘स्पुतनिक युग’क अभिमान क्षणमे भंग
जखन देखबह अपन दुनू आँखिसँ प्रत्यक्ष
दूध बिनु म्रियमान शत-शत बाल
अन्न बिनु म्रियमान नर-कंकाल
वस्त्रा बिनु म्रियमान माइक लाज
धाँगि चुकलह अपन सप्तद्वीप धरती
मथि गेलह अगाध सातो सिन्धु
किन्तु नहिएँ कतहु भेटलहु एकर औषध हाय!
जा रहलह तें गगनमे आइ संजीवनी जोह’
जाह हे युगपुरुष, सुखसँ जाह
शिवास्ते पन्थाह!
कहह हमरा लेल अनबह कोन-कोन सनेस?
सर्षपाकृति माथकें चाही न किछु विशेष
भरल बाटी दूध लाबह भरल थारी भात
आर लाबह वस्त्रा टा भरि गात।
जाह हे युगपुरुष, सुखसँ जाह
शिवास्ते पन्थाह!

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