मायानन्द मिश्र-मानवता




मुँहमे एखनहुँ पड़ल छै अधचिबाओल
हरित, कोमल आस्था केर शस्य,
कानमे एखनहुँ गुँजै छै तानसेनक गीत
किन्तु
दुष्यन्तक देखि भीषण रथ
धनुष आ तीर
भयाकुल अछि हरिन-दल
संत्रास्त
द’ रहल चकभाउर ठामहि ठाम।

एसगर
डुबैत जा रहल अछि हमर ‘आवाज’
एहि माथाहीन भीड़क असम्बद्ध कोलाहलमे
हमर ‘आवाज’ डूबल चल जा रहल अछि
असहाय
विवश
ओकर लहराइत हाथ एखनहुँ देखबामे आबि रहल अछि
सब ताकि रहल अछि
मूक, असमंजसमे।
कहियो जागत पौरुष(?)
ता कतेको डूबि गेल रहत।

3 टिप्पणियाँ

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