कहिया धरि- कविता- रमानन्द रेणु

एकटा-चादरि  ओढै़ छी
हमरा सभ
आ नेरा दै छी
आ दोसर चादरि  ओढ़ि लै छी
सभ दिनसँ

बर्खक चादरि  ओढ़ि
आइयो
समयक प्रवाहमे
अपन नाह खेबने  जा रहल छी
जखन ओढ़ल चादरि  नेरबै छी
तँ देखै छी
अपन देह
सर्वत्रा लुधकल  घोड़न सदृश असंख्य जन्तु
चाहियो कनोचि नहि
फेकि पबै छी
आ पीड़ा सहैत  हमरा सभ
दोसर चादरि ओढ़ि
अपनाकें नुका लै छी
पूर्ववत्।

हमर नैतिक मूल्य
हमर आस्था
हमर आचरण
एक्के संग सभ  किछु भगेल अछि खाक
आ मनुष्यताक  गरदनिमे
बान्हल  दोष/ बेनिहाइत
पिटने जा रहल  छी/ अनवरत।

चादरि तँ एहिना  बदलैत रहत
आ हमरा सभ  एहिना देखैत रहब
किन्तु
कहिया धरि
हमरा सभ माँसु  एना गलबैत रहब
कहिया धरि? ... कहिया धरि? ...

5 टिप्पणियाँ

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