मुम्बई। 23 फरवरी। [राज कुमार झा] आवश्यकतासँ अधिक सम्पत्ति केर संचयन, संग्रह एवं ऊपार्जित सम्पत्तिक उपयोग जँ परमार्थ एवं सेवाक हेतु अर्जित कयल जाए तखन मानल जेबाक चाही जे संग्रहित सम्पत्तिक सदुपयोग भेल, अन्यथा अवांछित संग्रहित सम्पत्ति पापक कारण बनैत अछि । स्वयं एवं परिवारक परिमार्जन हेतु विवेक आ बुद्धि बलसँ अर्जित सम्पत्ति, आत्मसंतुष्टिक भावनाकें प्रबल बनवैत अछि। उपयोगसँ अधिक सम्पत्तिक ऊपार्जन नीक बात परंतु ओहि सम्पत्तिकें व्यक्तिगत नहि बुझि, निराश्रित व्यक्तिक सेवा हेतु उपयोग करब मानव धर्म थिक। धनक ऐश्वर्यकें प्राप्त करब प्रत्येक व्यक्तिक आकांक्षित इच्छा मानल गेल अछि परंतु जँ विवेकपूर्वक विचार कयल जाए, तखन निश्चित करी जे संचित सम्पत्ति वा धनक उपयोग सोना केर लंकाक निर्माण हेतु नहि हो, बल्कि द्वारिका नगरीक निर्माणक पवित्र इच्छा हेतु आकांक्षित हो ।
मान्यता अछि जे लंका एवं द्वारिका दुनू नगर सोनाक नगरीक नामसँ विख्यात छल। परंतु सोनाक लंकामे रावण आदि असुर समूह निवास करैत छल, जाहिठाम अनैतिक, अनाचार एवं धर्म विरुद्ध आचरणसँ मानव समाज त्रस्त रहैत छल आओर सर्वत्र अधार्मिक प्रवृतिकें प्रश्रय देल जाइत छल। परंतु द्वारिकाक महलक द्वार धर्मनिष्ठ सुदामाक स्वागत हेतु सदैव खुजल छल । बाल सखा सुदामाक स्वागत करैत कृष्ण भाव विभोर होइत छथि । एहि सखा प्रेम आ सुदामाक छवि-अवलोकनक भावकें कवि अपन कल्पना केर माध्यमसँ वर्णन करैत छथि :
"देखि सुदामा की दीन-दशा करुणा कर के करुणानिधि रोए ।
पानी परात को हाथ छुए नहि नैनन के जल सँ पग धोए ।।"
परिणामस्वरुप सुदामा द्वारा बिनु याचनाक उपरान्तहुँ कृष्ण अपन सखाकें लौकिक एवं पारिलौकिक ऐश्वर्य प्रदान करैत आत्मसंतुष्टिक अनुभूति करैत छथि । इएह मुलभूत अंतर अछि सोनाक लंका एवं द्वारिकामे धर्मानुकूल अतिथि सत्कार-परंपराक मध्य अंतरभावकें व्यक्त करबाक ।
समर्थ व्यक्तिक कर्तव्य बनैत छनि जे उपेक्षित एवं निर्धन व्यक्तिक समस्या एवं आवश्यकताकें गंभीरतापूर्वक विचार करैत हृदयसँ सहायता प्रदान करी एवं सहायता प्रदान कयला उपरांत कोनो प्रकारक भाव व्यक्त करबासँ परहेज करी, जाहिसँ सहायता प्राप्त कयल व्यक्ति स्वयंकें परिवार एवं समाजक समक्ष सम्मानपूर्वक जीवन निर्वहन करबाक हेतु उद्दात चित्तसँ प्रफुल्लित एवं प्रसन्नताक अनुभव कS सकैथ।
हमरालोकनि सुदामाक संतुष्टि- मनोभावसँ प्रेरणा ग्रहण करबाक कोशीश करी एहि हेतु जे कृष्ण द्वारा प्रदत्त ऐश्वर्यकें स्वयं उपयोगमे नहि आनि, अपन पत्निसँ आग्रहपूर्वक अनुरोध करैत छथि जे कृष्ण द्वारा प्रदत्त सम्पत्तिक उपयोग अन्य व्यक्तिक मध्य करी जिनका नितांत आवश्यकता छनि संगहि अभावग्रस्त जीवन बितेवाक हेतु विवश छथि। प्रसादक सेवन स्वयं नहि करी बल्कि प्रसादक वितरण समाजक मध्य कयल जेबाक चाही तत्पश्चात स्वयं प्रसाद ग्रहण करी ।
धनवान बनब पाप नहि थिक परंतु अनैतिक ढंगसँ धनक ऊपार्जन करब पापक श्रेणीमे अबैत अछि। ईमानदारीपूर्वक संचित सम्पत्तिसँ चित्तमे शांतिक भाव सहज रुपसँ प्रसन्नता प्रदान करैत अछि। सोनाक नगरी बनेवाक प्रयास अवश्य कयल जेबाक चाही परंतु सोनाक लंका निर्माणक भावकें वर्जित करब परमावश्यक। कारण अनीति द्वारा निर्मित सोनाक लंकाके अंतिम परिणतिसँ हमरालोकनि भलीभांति परिचित छी एवं अंततः लंकाकें भस्म होमय पड़ैत छैक।
अतः निवेदन अछि जे धनवान बनब पाप नहि बल्कि अनैतिक रुपसँ ऊपार्जित धन पापक कारण बनैत अछि ।
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