जीवित्पुत्रिका व्रत (जितिया) केँ कथा आ महत्त्व

संतानक स्वस्थ, सुखी आर दीर्घायु होयबाक लेल मातागण जीवित्पुत्रिका व्रत करैत छथि। अप्पन मिथिला म' एहि पाबनि क' जितिया कहैत अछि।  इ पाबनि नेपाल केँ किछ हिस्सा, उत्तर प्रदेश  आर मिथिला सहित सम्परूण बिहार म' मनाओल जायत अछि। जीवित्पुत्रिका (जितिया) आश्विन मास केँ कृष्णपक्षक प्रदोषकाल-व्यापिनी अष्टमी के दिन मनाओल जायत अछि। जीवित्पुत्रिका (जितिया) व्रत तीन दिनक होयत अछि। नहाई - खाई (पहिल दिन), खुर जितिया (दोसर दिन) आर पारण (तेसर दिन) होयत अछि।

जीवित्पुत्रिका (जितिया) व्रत कथा : मातागण इ व्रत अपार श्रद्धाक संग करैत छथि। जीवित्पुत्रिका व्रत के संग जीमूतवाहन केर कथा जुड़ल अछि।  जे एहि प्रकारे अछि; गन्धर्व सभक राजकुमार केँ नाम जीमूतवाहन छल। ओ बड्ड उदार आर परोपकारी छलाह।  जीमूतवाहन केँ पिता वृद्धावस्था म' वानप्रस्थ आश्रम जायत घरी हुनका राजसिंहासन पर बैसा देलन्हि, मुदा, हुनकर मोन राज-पाट म' नै लगलैन। ओ राज्यक भार अप्पन भाई पर छोईड़ खुद वन म' पिता केर सेवा करबाक लेल चल गेला। ओतहि हुनकर बियाह मलयवती नाम केँ राजकन्या सँ भेलन्हि।

एक दिन जखन वन म' भ्रमण करैत जीमूतवाहन बहुत दूर चल गेला, तेँ हुनका एक वृद्धा विलाप करैत देखार देलन्हि। हुनका सँ पुछला पर वृद्धा काने लागलीह आर कहली 'हम नागवंश केँ स्त्री छी आर हमरा एके गोट पुत्र अछि। पक्षीराजगरुड़क समक्ष नाग सभ हुनका प्रतिदिन भक्षण हेतु एक नाग सौपवाक प्रतिज्ञा केना अछि। आय हमर पुत्र शंखचूड़ केर बलिक दिन छी ताहि लेल हम कानैत छी;

जीमूतवाहन वृद्धा क' आश्वस्त करैत कहला, 'नै कानू, हम अपनेक पुत्र केँ प्राणक रक्षा करब। आय हुनका बदला हम स्वयं अपना आप क' लाल कपड़ा ओढ़ी  वध्य-शिला पर लेटब' एतबा कही जीमूतवाहन शंखचूड़ केँ हाथ सँ लाल कपड़ा ल' ओकरा ओढ़ी गरुड़ क' बलि देबाक लेल तय स्थल वध्य-शिला पर लेट गेलाह। नियत समय पर गरुड़ तेजी सँ अएलाह आर ओ लाल कपड़ा ओढल जीमूतवाहन क' पंजा म' ल पहाड़ के शिखर पर बैस रहला।


अप्पन चंगुर म' गिरफ्तार प्राणी केँ आँखि म' नोर आर मुंह सँ आह निकलैत नै देखि गरुड़ क' आश्चर्य भेलन्हि। ओ जीमूतवाहन सँ हुनकर  परिचय पुछलनि।  जीमूतवाहन सबटा खिस्सा  गरुड़ क' सुनेलनि। गरुड़जी हुनकर बहादुरी आर दोसरक प्राणक रक्षा करबाक लेल स्वयं क' बलिदान देबै बला हिम्मत सँ बहुत प्रभावित भेलन्हि।  प्रसन्न भ'केँ गरुड़जी हुनका जीवनदान द' देलन्हि आर नाग सभक बलि नै लेबाक वचन सेहो देलन्हि। एहि तरहे जीमूतवाहन केर साहस सँ नाग-जातिक रक्षा भेलन्हि। तहिये सँ पुत्रक सुरक्षा हेतु जीमूतवाहन केर पूजाक प्रथा शुरू भेल।

आश्विन कृष्ण अष्टमी केँ प्रदोषकाल म' पुत्रवती मातागण जीमूतवाहन केँ पूजा करैत छथि।  कैलाश पर्वत पर भगवान शंकर माता पार्वती क' कथा सुनबैत कहला कि आश्विन कृष्ण अष्टमी के दिन उपवास करि जे स्त्री सायं प्रदोषकाल म' जीमूतवाहन केर पूजा करती आर कथा सुनलाक बाद  आचार्य क' दक्षिणा देती, ओ पुत्र-पौत्रक पूर्ण सुख प्राप्त करती। व्रतक पारण दोसर दिन अष्टमी तिथिक समाप्ति केँ बाद कायल जायत अछि। इ व्रत अत्यंत फलदायी होयत अछि। 

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