रमेश 1961-
जन्म स्थान मेंहथ, मधुबनी, बिहार। चर्चित कथाकार ओ कवि । प्रकाशित कृति: समांग, समानांतर, दखल (कथा संग्रह), नागफेनी (गजल संग्रह), संगोर, समवेत स्वरक आगू, कोसी धारक सभ्यता, पाथर पर दूभि (काव्य संग्रह), प्रतिक्रिया (आलोचनात्मक निबंध)।
गद्य कविता- डॉ. काञ्चीनाथ झा ‘किरण’क नामक अद्वैत मीमांसा
अहाँ स्वभिमानी छी, तँ किरण जी छी।
जनमानसक पक्षमे सामाजिक छी, तँ किरणजी छी।
अहाँ किरणजी छी, तँ मह-महाइत मिथिला छी।
अहाँ मह-महाइत मिथिला छी, तँ निश्चिते कह-कह भुन्हूर सन किरणजी छी।
अहाँ मानसिकता आ मोहविरा मे ‘सोइत’ छी, तँ किरणजी नहि छी। मोहविरा मे पञ्जी-प्रबन्धक ‘बाबू साहेब’ छी, तँ किरणजी नहिए टा छी।
अहाँ वास्तव मे ‘जयवार’ छी, तँ चलू कहुना कऽ किरणजी छी।
जँ ब्राह्मण-वर्गीकरण मे कत्तहु टा नहि छी अहाँ, तँ जरूर किरणजी छी।
आ जँ दसो दिकपालमे सँ क्यो अहाँक पैरवीकार नहि छथि, तँ ध्रुव सत्य मानू, अहाँ आर क्यो नहि, किरणेजी टा छी।
अहाँक मन-बन्ध सुमनजी-अमर जी सँ हो, तँ भऽ सकैए, संज्ञा रूपें अथवा मोहविरामे अहाँ साहित्यिक आ धार्मिक ब्राह्मण भऽ जाइ। अहाँक मन-बन्ध मधुपजी सँ हो, तँ निश्छल भक्त-हृदय मैथिल जीवनक लोकगायक अहाँकेँ मानबामे कोनो असौकर्य नहि। जँ मणिपद्ध जी सँ मन-बन्ध हो, तँ, अपना केँ मिथिलाक लोक-संस्कृति-चेताक उदात्त उदाहरण बूझि सकैत छी। आ जँ अहाँक मन-बन्ध किरणेजी टा सँ हो, तँ सय प्रतिशत मनुक्खक अलावा अहाँ आर किच्छु भैय्ये नहि सकैत छी।
कविवर सीताराम झाक अन्योक्ति-वक्रोक्ति आइयो मिथिलाक जड़ता-जटिलतापर मुङरी पटकि रहल अछि।
अपन मुक्तिक प्रसंग तकैत आइयो राजकमल मिथिलाक ‘महावन’ मे अहुरिया काटि रहल छथि।
बाबा बैद्यनाथकेँ पाथर कहैत आइयो किरण-शिष्य यात्रीक अनवरत ब्रह्माण्ड-विलाप जारी अछि। धूमकेतु ‘मनुक्खक देवत्वे’पर एखनो ‘रिसर्च’ कऽ रहल छथि। मुदा साक्षात् किरणजी आइयो मनुखताक उपेक्षापर गुम्हरैत। पुरातनपंथीकेँ कान पकड़ैत/ माटिक महादेवकेँ छोड़ि मनुक्ख-पूजनक-सुस्पष्ट उद्घोषणा कऽ रहल छथि।
अहाँ खट्टर कका छी, तँ, माङुरक झोड़सँ चरणामृत लऽ सकैत छी। मुदा किरणजी जकाँ माङुरक ओही झोड़सँ सर्वहारा वर्गक अरूदा बढ़ेवाक बैदगिरी नहि कऽ सकैत छी। अहाँ कञ्चन-जंघासँ कूच-विहार धरिक यात्रा कऽ सकैत छी, मुदा डोमटोलीसँ मुसहरी धरिक नहि। अहाँ समाजिक सरोकारमे सुधारवादी भऽ सकैत छी, मुदा, किसान-आन्दोलन केँ मिथिलाक जमीनपर उतारि परिवर्त्तनकामी नहि।
अहाँ भाङ पीबि वसंतक स्वागत करब, तँ, अहाँ केँ, बताह कहबामे हुनकर संघर्ष-गीतक भास कनियो बे-उरेब हेबाक प्रश्ने कहाँ अछि? जहिना रूसोक पष्ठभूमि बिना फ्रांसीसी क्रांति संभव नहि छल, तहिना ‘मधुरमनि’क पृष्ठभूमि बिना ‘जोड़ा-मन्दिर’क अस्तित्व संभव कहाँ छल? ‘जगतारानि’ नहि तँ ‘बाँसक ओधि’ की? माटिक अभ्यर्थना नहि आ जनोन्मुखी सोचक सर्जना नहि तँ, आलोचनाक राज हंसक धोधि की?
ओ प्राचीन गीतक ‘लाउड-स्पीकर’ बनि सकैत छलाह, नवीन गीतक सी.डी.क उद्गाता नहि। ओ राज-सरोवरक हंस बनि नीर-क्षीर-विवेक(?) सँ आभिजात्य मीमांसाक पथार लगा कऽ साहित्यालोचनक खुट्टा गाड़ि सकैत छलाह। मुदा नव-चेतनाक प्रगति-शील गीतक गाता आ ज्ञाता नहि। ओ किरणजीकेँ काव्योपेक्षाक दंश दऽ सकैत छलाह, मुदा हुनका काल-निर्णय आ आगत-पीढ़ीक ‘मूड’ अज्ञात छल। ओ वस्तुतः ‘शास्त्रीय’ छलाह, आ किरणजी ‘तृणमूल’क कार्यकर्त्ता। ओ ‘उरोज’ केँ सरोजक उपमान बना श्रृंगार-काव्यक प्राचीन परंपराकेँ सम्पुष्ट कऽ सकैत छलाह। मुदा धानक उरोजमे दूध भरबाक सामर्थ्य हुनका कतय? ओ हुनकर जीवनक जड़त्व आ साहित्यक सीमा छल।
आँहाँ भासा-मंचपर लोक-चेतनाक सर्जक छी-तँ किरणजी छी।
साहित्यिक-मंचपर सामाजिक-चेतनाक पोषक छी-तँ किरणजी छी।
संस्कृतिक मंचपर जन-संस्कृतिक गायक छी- तँ किरणजी छी।
राजनीतिक मंचपर दिशाहारा-वर्गक पुष्टिवर्द्धन मे ‘महराइ’ गबैत छी-तँ किरणजी छी।
विद्यापतिक-मंचपर जनवादी गीत-संस्कृतिक उद्घाटक छी-तँ किरणजी छी।
अहाँक जीवन-दर्शन सुचिंतित ऊर्ध्वगामी अछि-तँ किरणजी छी।
जीवन आ साहित्य मे समरूप दृष्टिकोण हो-तँ अहाँ किरणेजी टा भऽ सकैत छी।
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