प्रसन्नता परिवर्त्तनशील नहि भऽ सकैछ : राजकुमार झा

मुम्बई। 10 मार्च। कोनो वस्तुक परस्पर आदान-प्रदान तावत् धरि व्यवहारिक बनल रहैत अछि जावत् धरि वस्तुक उपयोगिता जन सामान्यक आकांक्षाकें पूर्ति हेतु समस्तभावसँ स्वीकार्य नञि हो। स्वरूपमे परिवर्त्तनक लक्षण मानव दृष्टिकें किछु समयक लेल संतोष प्रदान तऽ कऽ सकैत अछि परन्तु स्वरूपक संग विचारमे भेदरहित परिवर्त्तन समग्र भावसँ सदाक हेतु आन्तरिक प्रसन्नता प्रदान करैत अछि । स्वरूपक अभिप्राय - शारिरीक वृद्धि अछि। 

शारिरीक वृद्धिक संग-संग संस्कारकें उन्मुक्त चिंतन केर माध्यमसँ भव्य बनेवाक प्रक्रिया वस्तुतः व्यक्तिकें लौकिक एवं पारलौकिक प्रसन्नता प्रदान करैत अछि आ एहि प्रकारक प्रसन्नता अपरिवर्त्तनशील होइत अछि। जँ व्यक्तिक संकल्प शक्ति श्रेष्ठ हो, विचारवान हो एवं समाजक प्रगतिक संग-संग स्वयंकें श्रेष्ठ परिवर्त्तन हेतु मर्यादाक संग "सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय" केर उद्दात भावनाक भाव लक्षित हो, निःसन्देह परिणाम आकांक्षित अभिलाषाकें यथेष्ठ एवं सर्वोत्कृष्ट बनवैत अछि।

प्रत्येक व्यक्तिक समृद्धिसँ प्रसन्न रहय वाला व्यक्ति सदैव आन्तरिक रूपसँ प्रसन्न रहैत छथि चाहे बाह्य जगतमे किछु समयक हेतु उद्विगनताक भाव कियेक नऽ लक्षित होइत हो। परिवारक निर्वहन हेतु पदार्थक उपयोगिता आवश्यक अछि परन्तु स्वयंकें परिश्रमसँ उपार्जित कयल गेल पदार्थकें उपयोग करबाक सात्विक भावना, अत्यधिक आनंद एवं संतुष्टि, विकासक श्रेष्ठ मापदंड बनैत अछि।  अन्य व्यक्तिक प्रति सम्मान, आदर एवं यथोचित सत्कार प्रदान करब, परंपराक विशिष्ट पूंजी बनि आत्म-संतुष्टिक सर्वश्रेष्ठ सम्पत्तिक संग्रह करबाक अतुलनीय प्रयास प्रसन्नताक कारण बनैत अछि एवं एहि प्रकारक प्रसन्नता कदमपि परिवर्त्तनशील नहि भऽ सकैत अछि।

अनुभव कयल जा रहल अछि जे किछु व्यक्ति अन्य व्यक्तिक ऐश्वर्यक प्रति शंकालु स्वभाव रखैत छथि। एक-दोसरकें शंकाक नजरिसँ देखब, परस्पर प्रेमक मध्य विभेद उत्पन्न करैत अछि। परिणामस्वरूप, एहि प्रकारक प्रवृति व्यक्तिकें व्यक्तिसँ अलगाव उत्पन्न करैत अछि एवं आपसी निकटताक मध्य दूरी उत्पन्न करैत व्यवहारमे रिक्तताक निराशारूपी चेतनाकें प्रश्रय दैत अछि। एहि प्रकारक प्रवृति वा मनोवृति परिवार एवं समाजक हेतु घातक प्रवृति थिक । असहज व्यक्ति स्वयंकें सहज नञि अनुभव कऽ अन्यक प्रति शंकालु बनैत छथि एवं संबंधक स्वरूपमे विकृति उत्पन्न होइत अछि। 

एहि हेतु कोशीश कयल जेबाक चाही जे शंकाक समाधान सहज अवस्थामे संवादक माध्यमसँ समाप्त करी। जाहिसँ असहज अवस्थाक तत्क्षण तिरोहित कय संबंधकें सुन्दर बनेवाक हेतु हृदयसँ अग्रसर होई। एहि प्रकारक स्थितिक परिणामस्वरूप, संबंधमे घनिष्टता बनत आ विकाररूपी नकारात्मक सोच स्वतः समाप्त हयत संगहि प्रसन्नताक वातावरणमे मानसिक शांति वस्तुतः जीवनकें भव्य बनेवामे योगदान कय प्रेमक धाराकें शीतलता प्रदान करत। अतः कहल जा सकैत अछि - प्रसन्नता परिवर्त्तनशील नहि भऽ सकैछ। इत्यलम्। जय श्री हरि।

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