"अतीतक चिंतन"
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हरिमोहन बाबू द्वारा लिखित "पाँच पत्र" केर अंतिम पत्र लऽ प्रस्तुत छी । पत्र लिखबाक उद्वेश्य छल जे नव पीढ़ी नवयुवक व नवयुवती मिथिलाक विभूतिक जीवन-दर्शन सँ अवगत होइथ एवं तदनुकूल विद्या-विभूति सँ आप्लावित मिथिलाक प्रति कर्तव्य निर्वहनक हेतु साकांक्ष होइथ ।
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काशीतः
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01.01.1959
स्वस्ति श्री बंगटकें हमर शुभाशीषः सन्तु ।
अत्र कुशलं तत्रास्तु । आगां सुरति जे एहि जाड़मे हमर दम्मा पुनः उखरि गेल अछि । राति-रातिभरि बैसिकऽ उकासी करैत रहैत छी । आब काशी-विश्वनाथ कहिया उठबैत छथि से नहि जानि । संग्रहणी सेहो नहि छुटैत अछि । आब हमरालोकनिक दबाइए की ? औषधं जाह्नवी तोयं वैद्यो नारायणो हरिः । एहिठाम सत्यदेव हमर बड्ड सेवा करैत छथि । अहाँक माएकें बातरस धएने छनि से जानिकऽ दुःख भेल परन्तु आब उपाये की ? वृद्धावस्थाक कष्ट तँ भोगनहि कुशल । बूढ़ीकें चलि-फीरि होइत छनि कि नहि ? हम आबिकऽ देखितिएनि, परञ्च अएबा जएबामे तीस चालीस टका खर्च भऽ जाएत दोसर जे आब हमरो यात्रा मे परम क्लेश होइत अछि । अहाँ लिखैत छी जे ओहो काशीवास करऽ चाहैत छथि । परन्तु एहिठाम बूढ़ीके बड्ड तकलीफ होएतनि । अपन परिचर्या करब योग्य तऽ छथिए नहि, हमर सेवा की करतीह ? दोसर जे जखन अहाँ लोकनि सन सुयोग्य बेटा-पुतहु छथिन तखन घर छोड़ि एतऽ की करऽ औतीह ? मन चंगा त कठौतीमे गंगा ! ओहिठाम पोता-पोतीके देखैत रहैत छथि । पौत्रसभ के देखबाक हेतु हमरो मन लागल रहैत अछि । परञ्च साध्य की ? उपनयनधरि जीबैत रहब तँ आबिकऽ आशीर्वाद देबनि । अहाँक पठाओल 30 टका पहुँचल एहिसँ च्यवनप्राश कीनिकऽ खा रहल छी । भगवान अहाँकें निके राखथु । चि. पुतहुके हमर शुभाशीर्वाद कहि देबनि । ओ गृहलक्ष्मी थिकीह । अहाँक माए जे हुनकासँ झगड़ा करैत छथिन से परम अनर्गल करैत छथि । परन्तु अहाँकें तँ बूढ़ीक स्वभाव जानले अछि । ओ भरिजन्म हमरा दुखे दैत रहलीह । अस्तु, कुमाता जायेत क्वचिदपि कुपुत्रो न भवति, एहि उक्ति के अहाँ चरितार्थ करब ।
अत्र कुशलं तत्रास्तु । आगां सुरति जे एहि जाड़मे हमर दम्मा पुनः उखरि गेल अछि । राति-रातिभरि बैसिकऽ उकासी करैत रहैत छी । आब काशी-विश्वनाथ कहिया उठबैत छथि से नहि जानि । संग्रहणी सेहो नहि छुटैत अछि । आब हमरालोकनिक दबाइए की ? औषधं जाह्नवी तोयं वैद्यो नारायणो हरिः । एहिठाम सत्यदेव हमर बड्ड सेवा करैत छथि । अहाँक माएकें बातरस धएने छनि से जानिकऽ दुःख भेल परन्तु आब उपाये की ? वृद्धावस्थाक कष्ट तँ भोगनहि कुशल । बूढ़ीकें चलि-फीरि होइत छनि कि नहि ? हम आबिकऽ देखितिएनि, परञ्च अएबा जएबामे तीस चालीस टका खर्च भऽ जाएत दोसर जे आब हमरो यात्रा मे परम क्लेश होइत अछि । अहाँ लिखैत छी जे ओहो काशीवास करऽ चाहैत छथि । परन्तु एहिठाम बूढ़ीके बड्ड तकलीफ होएतनि । अपन परिचर्या करब योग्य तऽ छथिए नहि, हमर सेवा की करतीह ? दोसर जे जखन अहाँ लोकनि सन सुयोग्य बेटा-पुतहु छथिन तखन घर छोड़ि एतऽ की करऽ औतीह ? मन चंगा त कठौतीमे गंगा ! ओहिठाम पोता-पोतीके देखैत रहैत छथि । पौत्रसभ के देखबाक हेतु हमरो मन लागल रहैत अछि । परञ्च साध्य की ? उपनयनधरि जीबैत रहब तँ आबिकऽ आशीर्वाद देबनि । अहाँक पठाओल 30 टका पहुँचल एहिसँ च्यवनप्राश कीनिकऽ खा रहल छी । भगवान अहाँकें निके राखथु । चि. पुतहुके हमर शुभाशीर्वाद कहि देबनि । ओ गृहलक्ष्मी थिकीह । अहाँक माए जे हुनकासँ झगड़ा करैत छथिन से परम अनर्गल करैत छथि । परन्तु अहाँकें तँ बूढ़ीक स्वभाव जानले अछि । ओ भरिजन्म हमरा दुखे दैत रहलीह । अस्तु, कुमाता जायेत क्वचिदपि कुपुत्रो न भवति, एहि उक्ति के अहाँ चरितार्थ करब ।
इति देवकृष्णस्य
पुनश्च : यदि कोनो दिन बूढ़ीके किछु भऽ जाइन तँ अहाँलोकनिक बदौलति सद् गति होयबे करतनि जाहि दिन ई सौभाग्य होइन ताहि दिन एक काठी हमरोदिस सँ धऽ देबनि ।
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