जनकपुरक सनेस २ कवि राजेन्द्र विमल/ रामभरोस कापड़ि "भ्रमर"/ रोशन जनकपुरी कविता- प्रस्तुति जितेन्द्र झा जनकपुर


डा. राजेन्द्र विमल (१९४९- )



नयनमे उगै छै जे सपनाकेर कोँढ़ी
फुलएबासँ पहिने सभ झरि जाइ छै
कलमक सिनूरदान पएबासँ पहिने
गीत काँचे कुमारेमे मरि जाइ छै
चान भादवक अन्हरिये
कटैत अहुरिया
नुका मेघक तुराइमे हिंचुकै छल जे
बिछा चानीक इजोरिया
कोजगरामे आइ
खेलए झिलहरि लहरिपर
ओलरि जाइ छै
हम किछेरेपर विमल ई बूझि गेलियै
नदी उफनाएल उफनाएल
कतबो रहौ
एक दिन बनि बालू पाथरक बिछान
पानि बाढ़िक हहाकऽ हहरि जाइ छै
के जानए कखन ई बदलतै हवा
सिकही पुरिवाकेर नैया डूबा जाइ छै
जे धधरा छल धधकैत धोंवा जाइ छै
सर्द छाउरकेर लुत्ती लहरि जाइ छै
रचि-रचिकऽ रूपक करै छी सिंगार
सेज चम्पा आऽ बेलीसँ सजबैत रहू
मुदा सोचू कने होइ छै एहिना प्रिय
सींथ रंगवासँ पहिने धोखरि जाइ छै

रामभरोस कापड़ि "भ्रमर" (१९५१- )


गजल
करिछौंह मेघके फाटब, एखन बाँकी अछि
चम्कैत बिजलैँकाके सैंतब, एखन बाँकी अछि
उठैत अछि बुलबुल्ला फूटि जाइछ व्यथा बनि
पानिके अड़ाबे से सागर, एखन बाँकी अछि
बहैत पानिआओ किनार कतौ खोजत ने
अगम अथाह सन्धान, एखन बाँकी अछि
फाटत जे छाती सराबोर हएत दुनियाँ “भ्रमर”
ई झिसी आ बरखा प्रलय, एखन बाँकी अछि।

रोशन जनकपुरी


डर लगैए
नाचि रहल गिरगिटिया कोना, डर लगैए
साँच झूठमे झिझिरकोना, डर लगैए
कफन पहिरने लोक घुमए एम्हर ओमहर
शहर बनल मरघटके बिछौना, डर लगैए
हमरे बलपर पहुँचल अछि जे संसदमे
हमरे पढ़ाबे डोढ़ा-पौना, डर लगैए
आङनमे अछि गुम्हरि रहल कागजके बाघ
घर घरमे अछि रोहटि-कन्ना, डर लगैए
आँखि खोलि पढ़िसकी तऽ पढ़ियौ आजुक पोथी
घेँटकट्टीसँ भरल अछि पन्ना, डर लगैए
चलू मिलाबी डेग बढ़ैत आगूक डेगसँ
आब ने करियौ एहन बहन्ना, डर लगैए

4 टिप्पणियाँ

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  1. डा. राजेन्द्र विमल


    नयनमे उगै छै जे सपनाकेर कोँढ़ी
    फुलएबासँ पहिने सभ झरि जाइ छै
    कलमक सिनूरदान पएबासँ पहिने
    गीत काँचे कुमारेमे मरि जाइ छै
    चान भादवक अन्हरिये
    कटैत अहुरिया
    नुका मेघक तुराइमे हिंचुकै छल जे
    बिछा चानीक इजोरिया
    कोजगरामे आइ
    खेलए झिलहरि लहरिपर
    ओलरि जाइ छै
    हम किछेरेपर विमल ई बूझि गेलियै
    नदी उफनाएल उफनाएल
    कतबो रहौ
    एक दिन बनि बालू पाथरक बिछान
    पानि बाढ़िक हहाकऽ हहरि जाइ छै
    के जानए कखन ई बदलतै हवा
    सिकही पुरिवाकेर नैया डूबा जाइ छै
    जे धधरा छल धधकैत धोंवा जाइ छै
    सर्द छाउरकेर लुत्ती लहरि जाइ छै
    रचि-रचिकऽ रूपक करै छी सिंगार
    सेज चम्पा आऽ बेलीसँ सजबैत रहू
    मुदा सोचू कने होइ छै एहिना प्रिय
    सींथ रंगवासँ पहिने धोखरि जाइ छै


    रोशन जनकपुरी


    डर लगैए
    नाचि रहल गिरगिटिया कोना, डर लगैए
    साँच झूठमे झिझिरकोना, डर लगैए
    कफन पहिरने लोक घुमए एम्हर ओमहर
    शहर बनल मरघटके बिछौना, डर लगैए
    हमरे बलपर पहुँचल अछि जे संसदमे
    हमरे पढ़ाबे डोढ़ा-पौना, डर लगैए
    आङनमे अछि गुम्हरि रहल कागजके बाघ
    घर घरमे अछि रोहटि-कन्ना, डर लगैए
    आँखि खोलि पढ़िसकी तऽ पढ़ियौ आजुक पोथी
    घेँटकट्टीसँ भरल अछि पन्ना, डर लगैए
    चलू मिलाबी डेग बढ़ैत आगूक डेगसँ
    आब ने करियौ एहन बहन्ना, डर लगैए

    रामभरोस कापड़ि


    गजल
    करिछौंह मेघके फाटब, एखन बाँकी अछि
    चम्कैत बिजलैँकाके सैंतब, एखन बाँकी अछि
    abhootpoorva prastuti

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  2. नाचि रहल गिरगिटिया कोना, डर लगैए

    bah

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