श्री राजकुमार झाक कलम स रचल दीवालीक शुभकामना "प्रकाशोत्सवक पर्व के प्रेमक प्रगटीकरण सँ सिंचित करी"


"प्रकाशोत्सवक पर्व के प्रेमक प्रगटीकरण सँ सिंचित करी" 
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पाबनि-तिहारक उत्सव भारतीय जनमानस केर जीवन कें संजीवनी प्रदान करैत अछि । कोनो प्रकारक त्यौहार अपन हेतु कें मानव जन समुदाय केर जीवन मे मानवीय करूणा आओर मर्यादाक उद्दात श्रेष्ठता कें प्रतिपादित करबाक भव्य संदेश निर्गत कराबैत अछि । भारतीय सनातन धर्म, मात्र भारतक आध्यात्मिक उत्कर्षक घोषणा नञि करैत अछि बल्कि 'वसुधैव कुटुम्बकम्' केर उद्घोषणाक स्वर निनादित करैत मानव, पदार्थ एवं धराधाम पर प्रकृति प्रदत्त प्रत्येक जड़-चेतन के कुटुम्ब बुझि यथोचित सम्मान सेहो निर्गत कराबैत रहैत अछि । जाहि पवित्र भूमिक रज-कण मे मानवीय करूणा, स्नेह आओर 'सर्वे भवन्तु सुखिनः, सर्वे सन्तु निरामया' क पवित्र भाव-प्रबोधन मन-प्राण कें रोमांचित करैत हो, ओहि दिव्य-वसुधा मे आयोजित कोनो तरहक पाबनि-तिहार भारतीय संस्कृतिक उतुंग ध्वजवाहक बनि सर्वत्र व समवेत रूपें हर्षक वातावरण उत्सर्जित कराबैत अछि ।

दीया-बाती (दिपावली) कें प्राचीन कालहिं सँ प्रकाशक पर्व मे मनेबाक परंपरा रहल अछि । देशक विभिन्न क्षेत्र एवं गाम-गाम मे एहि प्रकाशक पावन पर्व कें उल्लासपूर्ण व विहंगम वातावरण मे आयोजित करबाक परम्पराक भव्यता एवं उत्साह कें अवलोकन हेतु स्वर्गक देवता सेहो अवलोकित करबाक हेतु उत्साहित (लालायित) रहैत छथि । 

वाह्य प्रकाश दृश्यमान जगत केर घटित घटना समेत अन्यहुँ दृष्टिगत चित्र के प्रत्यक्ष रूपें साक्षात्कार कराबैत अछि । हमर व्यक्तिगत् मान्यता अछि जे जँ हम मनुष्य शरीर मे व्याप्त आत्माक अभिव्यक्तिक अनुरूप आचरण मे उपासना, करूणा, संवेदना, प्रत्येक पदार्थ मे प्रकृति प्रदत्त रचना कें धारण करैत जीवन पथ कें प्रशस्त कs सकबाक संकल्प ली, निश्चित रूप सँ अन्तर्मनक आध्यात्मिक प्रकाश जीवन मे  नैराश्यमूलक अवसाद के समाप्त करैत मानवीय कर्तव्य निर्वहन हेतु पथ कें आलोकित करैत रहत ।

आउ , दीया-बाती के एहि पावन पर्वक अवसर पर एक परिवारक सदस्यक रूपमे, उद्दात मनोभाव सँ, हृदयक उमंगता सँ, प्रेम आओर स्नेह सँ तथा हर्षित उद्गार सँ श्रेष्ठजन कें विनयावत् व विनम्रतापूर्वक नमन करी तथा समतुल्य कें हृदयस्थ स्नेह रूपी अनुराग सँ अभिनंदित करैत बौआ-बुच्ची कें शुभ्र शुभाशीष केर माध्यमें "दिया-बाती"क  पर्वक प्रकाशोत्सवक पुंज मे उज्जवल भविष्यक कामना करी । जय श्री हरि ।
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