आँचर भरि बरिसात.

आँचर भरि बरिसात
--------------------------
दिनभरि आँगन सूखल-सूखल
सगर रैन घर चूबल
एहन कोन बरिसात
नील सागर शत-प्रतिशत रीतल।
ढनमनाइत ढन-ढन करैत रहलै
अनढनहा बादर
करय कते उपहास पियासल के
किछुओ नहि आदर।
सोन कटोरा धरणी माँगय
बस चुरू भरि पानि
साओन मे जौं गृहिणी कानय
होयब उचित अछि आनि।
साँय-साँय पुरिबा करैत
सब झूठ, साँय की आयल
एहन कोन अखलास पवन के
छुबिते तन-मन घायल।
नभ में पसरल रंग शेखरक
राँगल छपुआ साड़ी
पैर धरत की घर सं बाहर
प्रीतम जकर अनाड़ी।
छोट नदी में पानि लबालब
ऐँचल-ऐँचल देह
सूखल काठ सजन अति नीरस
जौं नहि बरिसय नेह।
रोकि सकल उद्वेग घटा नहि
बरिसल संध्या-प्रात
तृप्त धरा पाओल वियोगिनी
आँचर भरि बरिसात।
 

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ